(जो
आप पढने जा रहे हैं. चुनाव के नीम-पागल माहौल में वह लिखना बेवकूफी के
सिवाए कुछ नहीं. फिर भी मन किया तो लिख दिया. अच्छा न लगे तो लखनवी अंदाज़
में ही कमेन्ट कीजिएगा. शेयर और लाइक्स पर कोई पाबंदी नहीं है)
हमारे प्रधानमंत्री एक अद्भुत फिनोमिना हैं. इस श्रेणी के लोग अब तक भारत की राजनीति में नहीं हुआ करते थे. यहाँ नेता लोगों के बापू होते थे, बाबासाहब होते थे. नेता शास्त्री जी और जे पी जैसे भी होते थे. हमारे यहाँ एम जी आर और एन टी आर जैसे नेता भी हुए. अटल जी अब भी हमारे बीच हैं.
कुछ लोग इन्हें ज़्यादा पसंद करते थे, कुछ थोडा कम. लेकिन इन्हें नापसंद करने वालों की तादाद कभी बहुत ज़्यादा नहीं रही. इस मामले में इमरजेंसी के दिनों की इंदिरा जी कुछ हद तक मोदी जी के थोड़ा करीब आती हैं. लेकिन इमरजेंसी के पहले और बाद वह भी ऊपर के नेताओं की श्रेणी में ही रहीं.
लेकिन नरेन्द्र मोदी ने नेता-अनुयायी संबंधों के अंकगणित में नए आयाम जोड़ दिए हैं.
आज की तारीख में कोई एक चौथाई लोग उन्हें दीवानगी की हद तक पसंद करते हैं. ये लोग हर सूरत और हर हालत में मोदी जी और उनके फैसलों के साथ हैं, फिर चाहे वह कितना ही गलत और अतार्किक फैसला क्यों न हो. मोदी जी पर कोई प्रश्न चिन्ह तो लगा दीजिए ज़रा; ये आप पर बिना कोई लिहाज़ किए मधुमक्खी की तरह चिपक जाएंगे. कोई बड़ी बात नहीं कि दक्षिण की तर्ज़ पर जल्द ही मोदी जी के मंदिर भी दिखने लगें. गांधी जी और उनके बाद नेहरू जी को छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी नेता के पास इतने कट्टर समर्थक नहीं रहे, जिनके लिए समर्थक और प्रशंसक जैसे शब्द छोटे पड़ गए हों. हालाँकि बांग्लादेश की आज़ादी के दौरान कुछ समय के लिए इंदिरा जी ज़रूर अपवाद रही हैं.
लेकिन एक चीज़ जो मोदी जी को बाकी सभी से बिलकुल अलग कर देती है, वह है एक बड़े तबके में उनके प्रति असीम घृणा. पहले एक तिहाई दीवानों के एकदम उलट दूसरे एक-चौथाई लोग उनसे बेपनाह नफरत करते हैं. उनकी शक्ल तक नहीं देख सकते. ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि मोदी कुछ अच्छा कर या सोच भी सकते हैं. इसका बस चले तो ये मोदी टायर तक खरीदना बंद कर दें. मोदी जी के विरोध में ये लोग भाषा की मर्यादा तक भूल जाते हैं. आप मोदी जी की किसी भी बात का समर्थन भर कर दीजिये, ये आपको भक्त साबित करने में लग जाएंगे.
नरेन्द्र मोदी यह सब अच्छे से जानते हैं. लेकिन फिलहाल नफरत करने वालों के बारे में वह कतई गंभीर नहीं हैं. उनका पूरा ध्यान तो बस बचे हुए तीन चौथाई पर ही है. उनका चुनावी अंकगणित भी यही है. इन तीन चौथाई में मोदी जी नरम समाजवादियों, रघुपति राघव वाले गांधीवादियों, थके – हारे कम्युनिस्टों, हल्का- फुल्का विरोध करते हुए एन जी ओ वालों, मुसलमानों के कुछ छोटे तबकों वगैरह के लिए जगह तो बना सकते हैं, लेकिन पक्के विरोधियों की उन्हें कोई परवाह नहीं. वह तो उन्हें लगातार चिढाए और चढ़ाए रखना चाहते हैं. मोदी जी को शायद यह भी लगता है कि इसी विरोध ने उन्हें पहचान दिलाई है, और उनकी मौजूदा पहचान का बने रहना उनके लिए ज़रूरी हैं.
लगता तो यही है कि एक चौथाई कट्टर विरोधियों के दिल जीतने का मोदी जी का कोई इरादा नहीं है. मेरी और हमारी दिक्कत शायद यही – कहीं पर है.
(अब ये न पूछिएगा कि आप कहना क्या चाहते हैं. जो आप चाहते हैं, वह आप खुद ही लिखिए. फेसबुक पर तो शब्दों की सीमा भी नहीं. और हाँ........मोदी जी, राहुल जी, अखिलेश भैया और बहन जी, किसी से मेरा कोई ज़मीन का झगड़ा नहीं है)
हमारे प्रधानमंत्री एक अद्भुत फिनोमिना हैं. इस श्रेणी के लोग अब तक भारत की राजनीति में नहीं हुआ करते थे. यहाँ नेता लोगों के बापू होते थे, बाबासाहब होते थे. नेता शास्त्री जी और जे पी जैसे भी होते थे. हमारे यहाँ एम जी आर और एन टी आर जैसे नेता भी हुए. अटल जी अब भी हमारे बीच हैं.
कुछ लोग इन्हें ज़्यादा पसंद करते थे, कुछ थोडा कम. लेकिन इन्हें नापसंद करने वालों की तादाद कभी बहुत ज़्यादा नहीं रही. इस मामले में इमरजेंसी के दिनों की इंदिरा जी कुछ हद तक मोदी जी के थोड़ा करीब आती हैं. लेकिन इमरजेंसी के पहले और बाद वह भी ऊपर के नेताओं की श्रेणी में ही रहीं.
लेकिन नरेन्द्र मोदी ने नेता-अनुयायी संबंधों के अंकगणित में नए आयाम जोड़ दिए हैं.
आज की तारीख में कोई एक चौथाई लोग उन्हें दीवानगी की हद तक पसंद करते हैं. ये लोग हर सूरत और हर हालत में मोदी जी और उनके फैसलों के साथ हैं, फिर चाहे वह कितना ही गलत और अतार्किक फैसला क्यों न हो. मोदी जी पर कोई प्रश्न चिन्ह तो लगा दीजिए ज़रा; ये आप पर बिना कोई लिहाज़ किए मधुमक्खी की तरह चिपक जाएंगे. कोई बड़ी बात नहीं कि दक्षिण की तर्ज़ पर जल्द ही मोदी जी के मंदिर भी दिखने लगें. गांधी जी और उनके बाद नेहरू जी को छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी नेता के पास इतने कट्टर समर्थक नहीं रहे, जिनके लिए समर्थक और प्रशंसक जैसे शब्द छोटे पड़ गए हों. हालाँकि बांग्लादेश की आज़ादी के दौरान कुछ समय के लिए इंदिरा जी ज़रूर अपवाद रही हैं.
लेकिन एक चीज़ जो मोदी जी को बाकी सभी से बिलकुल अलग कर देती है, वह है एक बड़े तबके में उनके प्रति असीम घृणा. पहले एक तिहाई दीवानों के एकदम उलट दूसरे एक-चौथाई लोग उनसे बेपनाह नफरत करते हैं. उनकी शक्ल तक नहीं देख सकते. ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि मोदी कुछ अच्छा कर या सोच भी सकते हैं. इसका बस चले तो ये मोदी टायर तक खरीदना बंद कर दें. मोदी जी के विरोध में ये लोग भाषा की मर्यादा तक भूल जाते हैं. आप मोदी जी की किसी भी बात का समर्थन भर कर दीजिये, ये आपको भक्त साबित करने में लग जाएंगे.
नरेन्द्र मोदी यह सब अच्छे से जानते हैं. लेकिन फिलहाल नफरत करने वालों के बारे में वह कतई गंभीर नहीं हैं. उनका पूरा ध्यान तो बस बचे हुए तीन चौथाई पर ही है. उनका चुनावी अंकगणित भी यही है. इन तीन चौथाई में मोदी जी नरम समाजवादियों, रघुपति राघव वाले गांधीवादियों, थके – हारे कम्युनिस्टों, हल्का- फुल्का विरोध करते हुए एन जी ओ वालों, मुसलमानों के कुछ छोटे तबकों वगैरह के लिए जगह तो बना सकते हैं, लेकिन पक्के विरोधियों की उन्हें कोई परवाह नहीं. वह तो उन्हें लगातार चिढाए और चढ़ाए रखना चाहते हैं. मोदी जी को शायद यह भी लगता है कि इसी विरोध ने उन्हें पहचान दिलाई है, और उनकी मौजूदा पहचान का बने रहना उनके लिए ज़रूरी हैं.
लगता तो यही है कि एक चौथाई कट्टर विरोधियों के दिल जीतने का मोदी जी का कोई इरादा नहीं है. मेरी और हमारी दिक्कत शायद यही – कहीं पर है.
(अब ये न पूछिएगा कि आप कहना क्या चाहते हैं. जो आप चाहते हैं, वह आप खुद ही लिखिए. फेसबुक पर तो शब्दों की सीमा भी नहीं. और हाँ........मोदी जी, राहुल जी, अखिलेश भैया और बहन जी, किसी से मेरा कोई ज़मीन का झगड़ा नहीं है)
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