कोई समझाए इन सबको.
विरोधियों के बयानों से विचलित हुए बगैर चुपचाप अपना काम करना, यह मोदी जी की पहचान है, उनकी ताक़त भी. उन्हें अब तक अपनी इसी पहचान पर वोट मिले हैं. लेकिन लालू जी की शैली अपना कर वह क्या हासिल करना चाहते हैं, समझ में नहीं आता. वैसे सदन की कार्यवाही टी वी पर दिखाई जाती है, और सदन में बोलकर भी चुनाव प्रचार किया जा सकता है, लेकिन लोकसभा और जनसभा की भाषा और शैली में फर्क तो रहना ही चाहिए. फिर प्रधानमंत्री पद की गरिमा का भी सवाल है. कोई समझाए इन्हें कि विपक्ष पर प्रहार अटल जी भी कम नहीं करते थे. और आडवाणी जी और जोशी जी अब भी सदन के भीतर ही हैं.
दूसरे हैं अपने राहुल जी. उन्हें न जाने किसने बता दिया कि दाढी बढाए, बाहें चढाए वह ज्यादा अच्छे लगते हैं. उनकी अपनी एक शैली है, और भाषण बाज़ी में वह दूसरे नेताओं का सामना नहीं कर सकते. कल मितरो...... कहकर मोदी जी की मिमिक्री करते हुए वह निहायत बचकाना लग रहे थे. ये नहीं जानते कि आक्रामक चुनाव प्रचार करने का मतलब चिल्ला कर कर गला बैठा लेना नहीं होता. राहुल जी भी दूसरों की नक़ल करते अच्छे नहीं दीखते. इस मामले में ज्योति सिंधिया भी उनके नक़्शे क़दम पर चल रहे हैं. वह भूल जाते हैं कि राजा- राजकुमारों को चिलाने की आदत भी नहीं होती, और प्रजा उन्हें गला फाड़ते देखना भी नहीं चाहती. कोई समझाए छोटे गांधी और छोटे सिंधिया को कि वे संसद में और बाहर सचिन पायलट और तरुण गोगोई जैसे युवा सांसदों को बोलते देखें और उनसे कुछ सीखें.
इस मामले में अखिलेश यादव बड़े संतुलित दिख रहे हैं. उनके पास ज्यादा कंटेंट नहीं होता, लेकिन उन्होंने अपनी एक शैली विकसित की है, जिसमें हास्य और कटाक्ष है; उनकी हाज़िरजवाबी इधर प्रभावित कर रही है. वह जान रहे हैं कि लोगों को कैसे लुभाना है. वह अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन पिछले एकाध साल में उन्होंने मोदी जी की तरह लोगों से कनेक्ट करना और अटल जी की तरह मीठे तंज़ कसना सीखा है. जबरन समाजवादी पार्टी के मुखिया बने अखिलेश किसी एंगल से समाजवादी नहीं हैं, लेकिन अब उनके भाषणों में समाजवादी शैली दिखने लगी है. अपने पिता की तरह उत्त पदेस कहते वह बड़े स्वाभाविक लगते हैं. लेकिन इनकी भाषा में थोडा अहंकार दिखने लगा है. मुझसे कुछ छोटे हैं, इसलिए इन्हें मैं ही समझाए देता हूँ कि थोड़ी सी विनम्रता से वह और भी अच्छे लगने लगेंगे.
विरोधियों के बयानों से विचलित हुए बगैर चुपचाप अपना काम करना, यह मोदी जी की पहचान है, उनकी ताक़त भी. उन्हें अब तक अपनी इसी पहचान पर वोट मिले हैं. लेकिन लालू जी की शैली अपना कर वह क्या हासिल करना चाहते हैं, समझ में नहीं आता. वैसे सदन की कार्यवाही टी वी पर दिखाई जाती है, और सदन में बोलकर भी चुनाव प्रचार किया जा सकता है, लेकिन लोकसभा और जनसभा की भाषा और शैली में फर्क तो रहना ही चाहिए. फिर प्रधानमंत्री पद की गरिमा का भी सवाल है. कोई समझाए इन्हें कि विपक्ष पर प्रहार अटल जी भी कम नहीं करते थे. और आडवाणी जी और जोशी जी अब भी सदन के भीतर ही हैं.
दूसरे हैं अपने राहुल जी. उन्हें न जाने किसने बता दिया कि दाढी बढाए, बाहें चढाए वह ज्यादा अच्छे लगते हैं. उनकी अपनी एक शैली है, और भाषण बाज़ी में वह दूसरे नेताओं का सामना नहीं कर सकते. कल मितरो...... कहकर मोदी जी की मिमिक्री करते हुए वह निहायत बचकाना लग रहे थे. ये नहीं जानते कि आक्रामक चुनाव प्रचार करने का मतलब चिल्ला कर कर गला बैठा लेना नहीं होता. राहुल जी भी दूसरों की नक़ल करते अच्छे नहीं दीखते. इस मामले में ज्योति सिंधिया भी उनके नक़्शे क़दम पर चल रहे हैं. वह भूल जाते हैं कि राजा- राजकुमारों को चिलाने की आदत भी नहीं होती, और प्रजा उन्हें गला फाड़ते देखना भी नहीं चाहती. कोई समझाए छोटे गांधी और छोटे सिंधिया को कि वे संसद में और बाहर सचिन पायलट और तरुण गोगोई जैसे युवा सांसदों को बोलते देखें और उनसे कुछ सीखें.
इस मामले में अखिलेश यादव बड़े संतुलित दिख रहे हैं. उनके पास ज्यादा कंटेंट नहीं होता, लेकिन उन्होंने अपनी एक शैली विकसित की है, जिसमें हास्य और कटाक्ष है; उनकी हाज़िरजवाबी इधर प्रभावित कर रही है. वह जान रहे हैं कि लोगों को कैसे लुभाना है. वह अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन पिछले एकाध साल में उन्होंने मोदी जी की तरह लोगों से कनेक्ट करना और अटल जी की तरह मीठे तंज़ कसना सीखा है. जबरन समाजवादी पार्टी के मुखिया बने अखिलेश किसी एंगल से समाजवादी नहीं हैं, लेकिन अब उनके भाषणों में समाजवादी शैली दिखने लगी है. अपने पिता की तरह उत्त पदेस कहते वह बड़े स्वाभाविक लगते हैं. लेकिन इनकी भाषा में थोडा अहंकार दिखने लगा है. मुझसे कुछ छोटे हैं, इसलिए इन्हें मैं ही समझाए देता हूँ कि थोड़ी सी विनम्रता से वह और भी अच्छे लगने लगेंगे.
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