Sunday, 17 September 2017

नोट बदली पर प्रधानमंत्री को ख़त

दोस्तों, नोट वापसी पर देश के प्रधानमंत्री को पत्र लिख रहा था. ज़रा देखिये तो, ठीक लिखा है? कुछ जोड़ना- घटाना तो नहीं है?

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

अर्थशास्त्र की मेरी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समझ बहुत कच्ची है, लेकिन राजनीतिशास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ, और इसीलिए नोटवापसी के मामले में थोडा हैरान हूँ.

मुद्दा दरअसल यह है कि आधुनिक पूंजीवाद के समर्थक एक धुर दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री ने एक ऐसा निर्णय लिया है, जो मूलतः एक समाजवादी प्रकृति का निर्णय है. यह निर्णय पूँजी के प्रवाह और नियमन (रेग्युलेशन) पर राज्य के दखल को और भी बढाता है. इससे तो साम्यवादी / समाजवादी लोगों को खुश होना चाहिए था. लेकिन कमाल है. कम्युनिस्टों के सबसे बड़े नेता येचुरी साहब इसका विरोध कर रहे हैं और समाजवाद के लेटेस्ट अलमबरदार अखिलेश यादव कह रहे हैं कि अर्थ व्यवस्था में थोडा काला धन भी रहना चाहिए. उनका मानना है कि मंदी के दिनों में काला धन तिजोरियों से बाहर निकलकर अर्थ व्यवस्था को संबल देता है.

शुरुआती समर्थन के बाद कांग्रेस भी अब विरोध में उतर आई है. फिर केजरीवाल तो केजरीवाल ही हैं. वैसे हमारे आसपास श्री नीतीश कुमार और प्रो. योगेन्द्र यादव जैसे आपके राजनैतिक विरोधी भी हैं, जो अलोकप्रियता का जोखिम लेकर भी मोटे तौर पर नोट वापसी का समर्थन ही कर रहे हैं.

बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं कि यह एक बेहद साहसिक कदम है. हर छः महीने में कहीं न कहीं चुनाव वाले हमारे लोकतंत्र में इतना बड़ा जोखिम या तो कोई बड़े जिगरे वाला ले सकता है, या कोई अव्वल दर्जे का ज़ुआरी या कोई महा -विक्षिप्त व्यक्ति. प्रश्न मेरा है, उत्तर आपको नहीं बल्कि समय को देना है.

यह ठीक है कि मुद्दे की गोपनीयता के मद्देनज़र पहले से ज्यादा तैयारियां नहीं की जा सकती थीं, वरना आपकी पार्टी के रेड्डी बन्धु, बसपा की मायावती जी, सपा के शिवपाल सिंह जी, कोंग्रेस के पवन बंसल साहब, दक्षिण की कनिमोड़ी और जय ललिता जी, पंजाब के बादल- मजीठिया, झारखंड के कौड़ा- सोरेन वगैरह साहिबान अपना पूरा माल ठिकाने लगा चुके होते. लेकिन गोपनीयता बनाए रखने के चक्कर में शायद आपकी टीम ने दूरअंदेशी को भी एक तरफ रख दिया. शायद इस निर्णय में आपकी मदद कुछेक ऐसे लोग (राजनेता और सीनियर अफसरान) कर रहे थे, जो ज़मीन से बहुत ऊपर रहते हैं, इसलिए वे आम लोगों को आने वाली दुश्वारियों का ठीक से अनुमान नहीं लगा सके. उंगली में स्याही, शादी के लिए ढाई लाख की अनुमति जैसे कदम बहुत देर से लिए गए. थोडा संवेदनशील होकर इस पीड़ा को काफी कम किया जा सकता था. और कम से कम आपकी पार्टी के लोग ऊटपटांग बयान देने से तो बच ही सकते थे.

वैसे एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि इस पूरे अभियान की लागत सरकार पर कितनी पड़ रही है. जिस तरह हवाई जहाज़ों और हेलीकॉप्टरों से नोट ढोए जा रहे हैं. बैंकों का परिचालन खर्च बढ़ रहा है और तमाम ज़रूरी कामकाज रुके हुए हैं. उद्योग और व्यापार में चक्काजाम सा हो गया है. जनता को होने वाले खर्चे और कष्टों की मानवीय कीमत तो न ही निकालें, बेहतर है. और हाँ, इधर आपके फैसले के लीक हो जाने की खबरें भी आ रही हैं (इसकी एक छोटी सी जांच भी करा लीजिये न!) लेकिन इन सब बातों के बावजूद लोग इस बड़े काम में आपकी मदद करना चाहते हैं. कमाल है कि बेइंतिहा परेशानी के बावजूद लम्बी लाइनों में खड़े ज़्यादातर लोग आपको गालियाँ नहीं दे रहे हैं. याद रखियेगा, ये सभी आपकी पार्टी के वोटर नहीं हैं.

बुरा न मानिएगा प्रधानमंत्री जी, लेकिन मुझे लगता है कि नोट वापसी के सीधे प्रभाव के रूप में कालेधन पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन इससे काला धन रखने वालों में घबराहट बहुत बढ़ेगी. नतीजतन सरकार को टैक्स देने के मामले में लोग थोडा ज्यादा ईमानदार होंगे. कुछ और ज्यादा लेनदेन कागजों पर यानी एक नंबर में होने लगेगा. नकली मुद्रा पर तो तात्कालिक असर होगा ही ( हालांकि अपना छोटा भाई पाकिस्तान सही- सलामत रहे, तो नकली नोटों की किल्लत जल्द ही दूर भी हो जायेगी. जीवे – जीवे पाकिस्तान.)

लेकिन यह सब तभी हो पायेगा, जब इसके साथ कुछ और ज़रूरी क़दम उठाये जाएं. अब ज़रुरत इस बात की है कि आप और आपकी सरकार असली बड़े खिलाड़ियों पर हाथ डालना शुरू करे. बहुतों को लगता है कि यह काम आपके लिए भी बूते और हिम्मत के बाहर है. इधर आपने और आपकी पार्टी के नेताओं ने आपकी नीयत साफ़ होने की बात कही है. अगर ऐसा है तो अब यह ज़रूरी है कि बैंकों के बड़े बकायेदारों के नाम ज़ाहिर किये जाएं; रीयल स्टेट और कंस्ट्रक्शन कंपनियों, आयात- निर्यात फर्मों रक्षा सौदागरों, दलाल फर्मों, बड़े सुनारों, उद्योग के नाम पर बड़े ज़मीन सौदों सभी की जांच की जाए. सभी राजनैतिक दल आर टी आई के दायरे में आएं. पहल खुद आपकी पार्टी भाजपा करे.

ये ज़ाहिर है कि आप भारत के नेहरु ही नहीं सिंगापुर के ली कुआन यू बनना चाहते हैं. तो बनिए न! मना किसने किया है. मौक़ा अच्छा है. अभी ढाई साल तो कोई आपको सत्ता से हिलाने वाला है नहीं. आप देश के प्रधानमंत्री के साथ ही भाजपा के नेता भी हैं. अपनी पार्टी और परिवार की बैठक बुलाइए और कालाधन जमा करने वालों के साथ नफरत की राजनीति करने वालों पर भी सर्जिकल स्ट्राइक कीजिए. पार्टी के भीतर विरोध की परवाह न कीजिए. इस मामले में सभी 130 करोड़ लोग आपके साथ हैं. इन 130 करोड़ के लिए मुकेशभाई और गौतमभाई वगैरह कुछ लोगों के एहसानफरामोश भी बन जाएंगे तो अच्छा ही होगा. किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के हिसाब से नीतियाँ बनाइए. जनता शायद पीछे का सब भूलने और माफ़ करने के लिए तैयार है. इस बहाने आपकी छवि भी बेहतर बनेगी. सब छोटे-बड़े दाग़ भी धुल जायेंगे. थोड़ी हिम्मत दिखाइए. लोगों ने बेहिसाब दुश्वारियों और दर्द के बावजूद लम्बी लाइनों में धैर्य के साथ खड़े रहकर बहुत कुछ संकेत दे दिया है.

आशा है कि आप इस दर्द की कीमत चुकाएंगे.

एक अदना नागरिक,

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