Sunday, 17 September 2017

नमस्तस्यै... नमो नमः

नमस्तस्यै...नमस्तस्यै. नमस्तस्यै... नमो नमः

ज़रा उठिए तो अपनी जगह से....थोडा अदब के साथ. और सलाम कीजिये, हरियाणा- पंजाब की उन शेरनियों को, उन दो लड़कियों को जिन्होंने बलात्कारी और हत्यारे बाबा के खिलाफ 15 साल तक अदालत में लड़ाई लड़ी. वह भी उस महाशक्तिशाली बाबा के खिलाफ, जिसकी ताक़त के सामने 130 करोड़ की आबादी वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को सेना तक उतारनी पड़ी. जिसके डेरे पर हरियाणा और पंजाब के न जाने कितने मुख्यमंत्री, मंत्री और आला अफसर बार- बार मत्था टेकने आते हैं.

कोई कम साहस की बात नहीं थी यह. सोचिये कितना दबाव रहा होगा उन लड़कियों पर , जिनमें से एक के भाई की ह्त्या बाबा ने शिकायत करने के फ़ौरन बाद करवा दी. 

नवरात्र अभी थोड़ा दूर हैं. लेकिन उससे पहले ही, आइये प्रणाम करते हैं दुर्गा की इन जीवंत प्रतिमाओं को.
दूसरा सलाम, इस मामले को अपने एक छोटे से अखबार 'पूरा सच' के ज़रिये दुनिया के सामने लाने वाले सिरसा के पत्रकार स्वर्गीय रामचंद्र छत्रपति को, जिनकी ह्त्या बलात्कारी बाबा ने अखबार में खबर छपने के कुछ ही दिन बाद करवा दी. डेरा सच्चा सौदा का मुख्यालय सिरसा में है. गुरमीत वहीं से अपना साम्राज्य चलाता है. पानी में रहकर मगरमच्छ से वैर मोल लिया छत्रपति जी ने, और एक सच के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी. याद रहे कि दिल्ली और चंडीगढ़ से छपने वाले बड़े से बड़े अखबार की भी हिम्मत नहीं हुई थी बाबा के खिलाफ यह खबर छपने की.

आइये उनकी शहादत के लगभग 15 साल बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं.और उनके बाद इस मुद्दे को जिलाए रखने वाले उनके बेटे के साथ खड़े होते हैं.

चीन से कद्दू लड़ोगे !

क्या मखौल बना रखा है. एक तीन कौड़ी का बलात्कारी और हत्यारा बाबा राज्य सत्ता और न्याय व्यवस्था को अपनी ताक़त दिखा रहा है. गुंडा मोदीजी को ( खट्टर- वट्टर कौन हैं जी?) ब्लैकमेल कर रहा है. सन्देश साफ़ है कि अगर मुझे जेल भेजा जाता है तो बड़े पैमाने पर बलवा करवाऊंगा, मेरे समर्थक आत्मदाह करना शुरू कर देंगे.

दरअसल बाबा अपनी ताक़त जानता है. कोई सरकार बवाल नहीं चाहती. वह जानता है कि दंगाइयों को रोकने के लिए आखिरकार गोली ही चलानी होगी. गोली चलेगी तो सारा विपक्ष तो एक होकर प्रच्छन्न रूप से उसका मददगार बन जाएगा. मीडिया का एक हिस्सा जिसे मोदी जी खरीद नहीं पाए हैं ( क्योंकि उसे दूसरों ने खरीद रखा है) वह भी कुल मिलाकर बाबा के साथ ही खडा होगा. बाबा यह भी जानता है कि जो लाखों लोग उसके नाम पर मरने- मारने को तैयार हों, उसके कहने पर पंजाब और हरियाणा के चुनावों में असर तो डाल ही सकते हैं.
दुर्भाग्य यह है कि हरियाणा सरकार कुछ भी करने के लिए कोर्ट का सहारा ले रही है. हरियाणा वाले बेचारे मोहनलाल तो वैसे भी जैसे-तैसे दिन गिन रहे हैं, पटियाले का प्रतापी राजा भी भी अपनी मूछों को नीचे करके चुपचाप बैठा हुआ है. हद ये है कि कोर्ट को बताना पड़ रहा है कि पुलिस और प्रशासन को क्या करना चाहिए. इरादा साफ़ है. आगे चलकर डेरे वालों के वोट चाहिए.

भक्त भले ही नादान हों, लेकिन उन्हें यह पता चलना चाहिए कि यहाँ कुछ भी देश और उसके कानून से ऊपर नहीं है. सरकार को बाबा को साफ़ सन्देश देना पड़ेगा कि अगर ज़रा सी भी हिंसा हुई तो व्यक्तिगत रूप से उसके खिलाफ शांतिभंग, आगज़नी, आत्महत्या के लिए भड़काना, हत्या और देशद्रोह के मुक़दमे लगा दिए जाएंगे. फिर सड़ते रहना जेल में. जेल में जुगाड़ लगाकर अच्छा बिस्तर, मोबाइल या सेटेलाईट फोन, दारू- मुर्गा, ब्लू फिल्म तो मिल जाएगा, मगर लड़की तो नहीं ही मिलेगी.

एक सीमा के बाद संयम दिखाने से सिर्फ सरकार की कमजोरी ज़ाहिर होती है. हिंसा किसी को अच्छी नहीं लगती, लेकिन हिंसा का जवाब जाट आन्दोलन की तरह पुलिस का पीछे हट जाना नहीं है. अपने नागरिकों पर गोली चलाना कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन यहाँ तो सख्ती दिखानी ही होगी. यह एक अच्छा मौक़ा है. एक बार अगर सरकार ने इच्छा शक्ति दिखाई तो इस तरह के दूसरे बदमाशों और दंगाइयों के लिए एक नजीर बनेगी. अच्छा यह है कि सुरक्षा बल सतर्क हैं. सेना भी मदद के लिए पहुंची हुई है.

याद रखिये बन्दूक लाठी की तरह चलाने के लिए नहीं, गोली दागने के लिए बनाई जाती है.

एक गुण्डे पर काबू कर नहीं सकते, चीन से कद्दू लड़ोगे !!

भौकाल का मतलब

फेसबुक पर कोई पूछ रहा था कि भौकाल का मतलब क्या होता है.

साधो,भौकाल का अर्थ होता है- रूतबा.. मर्तबा..हनक... अक्सर यह बढ़ा-चढ़ा कर पेश किये गए या बनावटी रुतबे यानी छद्म हनक के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है. इसका प्रचलन लखनऊ- कानपुर- इलाहाबाद के त्रिभुजाकार क्षेत्र यानी मोटे तौर पर अवध के इलाकों में अधिक पाया जाता है. शब्द और कांसेप्ट की लोकप्रियता की देखकर अब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार तक के लोग इसे अपनाने लगे हैं. वैसे भी अवध वाले पूरब और बिहार के बराबर भौकाल नहीं बना पाते ( हालाँकि आजकल दो गुजरात वाले देश भर में भौकाल मचाए पड़े हैं).
कुछ उदाहरणों से अर्थ और स्पष्ट होगा. : 1) यार, आज़म खां का तो बड़ा भौकाल है रामपुर में ; 2) अबे, काहे ज़बरदस्ती भौकाल बनाए हुए हो बे? 3) मोदी जी ने जापान में भी भौकाल मचा दिया, 4) अमित शाह से बड़ा भौकाली आज तक नहीं देखा.

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि भौकाल होता भी है, बनाया भी जाता है, मचाया भी जाता है,और दिखाया भी जाता है

और आपलोग... बिलावजह भौकाल दिखाने के लिए कमेंट्स न मारिएगा.अगर कमेंट्स लिखने तो उनका कोई मतलब भी होना चाहिए.

हाँ नहीं तो....... सीरियस लिखते हैं तो कोई लाइक या कमेंट्स नहीं देता. अब देखिये घंटे भर में सौ लाइक्स आ जायेंगे. फिर देखिये हमारा भौकाल.

संघी और सोवियत संघी


समझ में न आए तो चिंता न कीजिए, ऐसा कइयों के साथ होता है..नथिंग टु वरी........

सिर्फ यात्रा ही हम तीनों ने साथ-साथ शुरू की थी. इसके बाद तो वो दोनों तेज़ चलते हुए मुझसे बहुत आगे निकल गए. बहुत बाद में पता चला कि दोनों बहुत जल्द ही यात्रा से हट गए थे. पहला हर मोड़ पर दाहिने घूम जाता था, जबकि दूसरा हर चौराहे से बाएँ ही मुड़ना चाहता था. हर बार दाहिने घूम कर पहला वापस वही पहुँच गया, जहाँ से चला था. पहुंचकर उसे पता चला कि पहला वाला भी लगातार बाएँ घूमकर पहले ही वहाँ पहुँच गया है.

मैं बहुत तेज़ तो नहीं चला. लेकिन जितना भी चला.....सीधे ही चला. गनीमत कि मैं उनसे बहुत पीछे था, वरना शायद उनमें से कोई मुझे भी साथ ले लेता.

एक संघी था, दूसरा सोवियत संघी.

सीख: अगर आप लगातार दाहिने या बाएँ घुमते रहेंगे, तो फिर से वहीं पहुँच जायेंगे, जहाँ से चले थे, या फिर उससे भी कहीं पीछे. इसलिए सीधे चलिए. संभलकर चलिए..

हद दर्जे की बेशर्मी

पहले लगता था कि यह जिद्दीपना है, फिर लगा कि ढिठाई है, लेकिन अब पता चल रहा है कि ये तो बेशर्मी है. हद दर्जे की बेशर्मी .... देख रहे हैं?? दूसरों पर आरोप लगाकर इस्तीफे की मांग करने वाला अपने पर लगे आरोपों पर कैसे चुप साध कर बैठ गया है. भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है जब एक मंत्री अपने मुख्यमंत्री पर दूसरे मंत्री से रिश्वत ( या काली कमाई में हिस्सा) लेने की बात कह रहा हो, और यह भी कह रहा हो कि तीनों की लाइ डिटेक्टर से जांच करवा ली जाए.

और ऐसे में मुख्यमंत्री महोदय जवाब देने के बजाए ई वी एम मुद्दे पर विधानसभा का विशेष सत्र बुला रहे हैं.
हो सकता है कि कपिल मिश्रा मनगढ़ंत बात कह रहे हों. वह भी तो अरविन्द जी के पक्के शिष्य रहे हैं. यह भी हो सकता है कि मामला लूट में उनके हिस्से का रहा हो. बहरहाल, अगर आप बेदाग़ हैं तो फिर घर से निकल कर जवाब दीजिये न! सच्चे को किसका डर. ज्यादा हो तो लाइ डिटेक्टर की चुनौती भी स्वीकार कीजिए. हमारे यहाँ तो ऐसे नेता भी हुई हैं , जिन्होंने ज़रा सी उंगली उठने पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया. अभी एक- डेढ़ दशक पहले आडवाणी जी भी ऐसा कर चुके हैं. किसी हवाला कारोबारी जैन की डायरी में उनका नाम लिखा हुआ मिला तो उन्होंने तुरंत संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया, और मामला में पूरी तरह से निर्दोष पाए जाने पर ही दिबारा संसद में आए. संयोग से यहाँ भी हवाला कारोबारी मंत्री जैन साहब का ही मामला है.

तो फिर हे धर्मराज , इस्तीफ़ा न सही बयान तो दे दीजिए. घर में क्यों घुसे बैठे हैं. माना कि पंजाब और दिल्ली की पराजय के बाद आपका बयान इसलिए नहीं आया क्योंकि उसदिन आपको दस्त लग गए थे. लेकिन अब तो तीन दिन हो गए. इस बार के दस्त तो अब तक ठीक हो गए होंगे युगपुरुष जी? आप तो नारा देते थे... निकलो बंद मकानों से .... जंग लड़ो बेइमानों से.......अब जंग लड़ें - न लड़ें, बाहर निकल कर खुद अपने घर के बाहर फैले इस रायते को तो समेट दीजिए.

गुजरात के गधे

गुजरात के गधों ' का ज़िक्र करके आप घोड़ा साबित नहीं हो पाएंगे अखिलेश भैया . चुनाव जीतें तो इस बार कुछ काम कीजियेगा, और हार जाएँ तो सकारात्मक विरोध.

यही बात आपके लिए भी मोदी जी. जीतें तो शमशान या कब्रिस्तान नहीं, अमन और तरक्की की बात कीजिएगा, और हार गए तो भी उत्तर प्रदेश को केंद्र का साथ दिलाइएगा.

समझ गए दोनों? समझ लीजिए, ताकि 22 के चुनाव में इस तरह घोड़े-गधे की बात करके उत्तर प्रदेश की जनता को उल्लू न बनाना पड़े.

(जो अभी समाचार नहीं देख पाए हैं, उनकी जानकारी के लिए आज अखिलेश जी का बयान आया है, जिसमें अमिताभ बच्चन साहब के एक विज्ञापन का हवाला देकर उन्होंने 'गुजरात के गधे' जैसे शब्द का गैरज़रूरी ज़िक्र किया है. इससे पहले मोदी जी कल श्मसान और कब्रिस्तान का मुद्दा उछाल चुके हैं )

लिख दिया ताकि सनद रहे

मैं राजीव ध्यानी, साकिन मोहल्ला इंदिरा नगर, तहसील ओ ज़िला लखनऊ, सूबा- उत्तर प्रदेश अपने ईमान और मुल्क के आईन (संविधान) को हाज़िर-नाज़िर मानकर फेसबुक के दोस्तों की मौजूदगी में इस बात की हलफ लेता हूँ कि इस बार के इन्तेखाबात (चुनाव) में मैं अपना वोट ज़ाया नहीं होने दूंगा.

मुझे मालूम है कि मेरा वोट ऐसे उम्मीदवार को जा रहा है, जिसके जीतने के रत्ती भर इमकानात नहीं हैं. यह उम्मीदवार मेरी ही तरह एक आम शहरी है; चुनाव के लिए अखबार में दो पेज का इश्तिहार देने की उसकी हैसियत नहीं है.

ये न अपनी जात पर वोट मांग रहा है, न मज़हब पर. इसके कुरते की जेब राहुल जी से ज़्यादा फटी हुई है ( और यह इसने खुद नहीं फाड़ी, न ही यह इसकी नुमाइश करता है). इसकी साइकिल नेता जी की साइकिल (जिस पर अखिलेश जी ने नया रंग करवा रखा है) से ज्यादा पुरानी है. इसने या इसकी बीवी ने बहन जी की तरह हाथ में पर्स लेकर जीते जी अपना कोई बुत नहीं बनवाया है. इसने कभी किसी दंगे या पंगे में शिरक़त नहीं की है. इसकी दाढी और कुर्ता मोदी जी से ज्यादा उजले और बेदाग़ है.

इसका किसी बाहरी मुल्क में बैंक खाता नहीं है. इसके या इसके बाप- दादों पर तोप दलाली में पैसा खाने, आमदनी से ज्यादा दौलत रखने, चुनाव में टिकट बेचने या दंगे के दौरान आँखों पर पट्टी बाँध लेने का कोई इल्जाम नहीं लगा.

यह किसी कुनबे की चौथी पीढी में पैदा होने से ही नेता नहीं बन गया है. न ही इसने कुर्सी के लिए बाप (या बाप सरीखे उस्तादों) को लात मारकर किनारे किया है. और न ही दूसरे शागिर्दों को दफा कर उस्ताद की बनाई पार्टी पर ज़बरन कब्ज़ा किया है.

यह जीतने के लिए आपको किसी का डर नहीं दिखाता. न गेरुए झंडे वालों का, न दाढ़ी-टोपी वालों का, न रिज़र्वेशन ख़त्म हो जाने का.

अगर ये जीत जाता तो मेरी और आपकी गाढ़ी कमाई से मुफ्त में कुकर, कम्प्यूटर और वाई-फाई की रेवड़ियां न बांटता, बल्कि रोज़गार और कमाई बढाने पर जोर देता. सूबे में अमन, हिफाज़त और तरक्की क़ायम करने की कोशिश करता.

दोस्तों, मेरे इस उम्मीदवार को कुल जमा एकाध हज़ार वोट भी मिल जाएं, तो ग़नीमत होगी. लेकिन अपने ईमान के वास्ते - इसे खोजिए और वोट दीजिये.

ये तो शर्तिया हार जाएगा, लेकिन इसे वोट देकर हम और आप ज़रूर जीत जाएंगे. उम्मीद है, आपके ईमान का रंग आपकी पसंदीदा पार्टी के झंडे के रंग से ज्यादा चटख साबित होगा.
आमीन!

(लिख दिया ताकि सनद रहे , और आने वाली पीढ़ियों के सामने बताया जा सके कि उनके सभी पुरखे किसी से डरे हुए और किसी एक तरफ झुके हुए नहीं थे)

नाम बोलता है, जी नाम बोलता है.


आइये, एक खेल खेलते हैं. कुछ जुए जैसा. मुझे अपना नाम बताइए. पूरा नाम. और मैं आपको बताऊंगा कि आप किसे वोट देने वाले हैं.

अगर आपके नाम के पीछे पाण्डेय, मिश्रा, त्रिवेदी, पन्त, कौशिक, सारस्वत, राय, रघुवंशी, परमार, अग्रवाल, श्रीवास्तव जैसा कुछ है, तो आप कमल को वोट देने जा रहे हैं. अगर मैं सही हुआ तो आप मुझे पांच रुपये देंगे. अगर मैं गलत हुआ तो मैं आपको बीस रुपये दूंगा. अगर मैं गलत हुआ तो ज़्यादातर मामलों में इसका मतलब यह भी होगा कि अगर आप नहीं तो आपके परिवार का कोई किसी पार्टी में है, या फिर आप पढ़ाई के दौरान आइसा या एस एफ आई में थे.

अगर आपका नाम यादव के साथ ख़त्म होता है, तो इस बार आप साइकिल चलाएंगे. सही होने पर मैं आपसे पांच रूपए लूँगा, और गलत होने पर पचास रूपए दूंगा. वैसे इसका मतलब यह भी होगा कि आप किसी पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, या फिर शिवपाल चच्चा के आदमी हैं, और साइकिल का पहिया पंक्चर करने में लगे हैं.
इसी तरह अगर आपके नाम के आगे मोहम्मद, अहमद या पीछे पीछे सिद्दीकी, अब्बासी, खान वगैरह है तो आप भी साइकिल चलाएंगे. सही होने पर मैं आपसे पांच रूपए लूँगा गलत होने पर मैं आपको बीस रूपए दूंगा. वैसे ज्यादा देता, लेकिन कहीं- कहीं साइकिल के बगल में हाथी भी तो खडा है. वैसे अगर आप कमल का बटन दबाएंगे तो मैं आपको पांच सौ रूपए दूंगा.

लेकिन अगर आप लखनऊ के आसपास के हैं, और आपके नाम में रिज़वी, नकवी, आब्दी जैसा कुछ है तो आप हाथी की सवारी करने की काफी संभावना है. कमल का बटन दबाने पर आपको दो सौ रूपए मिलेंगे.

बाक़ी सरनेम? अरे भाई, मैंने ठेका लिया है क्या भविष्यवाणी करने का. शर्म करिए, और हार मान लीजिये उत्तर प्रदेश वालो! क्योंकि इस खेल में मैं भारी फायदे में रहने वाला हूँ.

एक अद्भुत फिनोमिना

(जो आप पढने जा रहे हैं. चुनाव के नीम-पागल माहौल में वह लिखना बेवकूफी के सिवाए कुछ नहीं. फिर भी मन किया तो लिख दिया. अच्छा न लगे तो लखनवी अंदाज़ में ही कमेन्ट कीजिएगा. शेयर और लाइक्स पर कोई पाबंदी नहीं है)

हमारे प्रधानमंत्री एक अद्भुत फिनोमिना हैं. इस श्रेणी के लोग अब तक भारत की राजनीति में नहीं हुआ करते थे. यहाँ नेता लोगों के बापू होते थे, बाबासाहब होते थे. नेता शास्त्री जी और जे पी जैसे भी होते थे. हमारे यहाँ एम जी आर और एन टी आर जैसे नेता भी हुए. अटल जी अब भी हमारे बीच हैं.

कुछ लोग इन्हें ज़्यादा पसंद करते थे, कुछ थोडा कम. लेकिन इन्हें नापसंद करने वालों की तादाद कभी बहुत ज़्यादा नहीं रही. इस मामले में इमरजेंसी के दिनों की इंदिरा जी कुछ हद तक मोदी जी के थोड़ा करीब आती हैं. लेकिन इमरजेंसी के पहले और बाद वह भी ऊपर के नेताओं की श्रेणी में ही रहीं.

लेकिन नरेन्द्र मोदी ने नेता-अनुयायी संबंधों के अंकगणित में नए आयाम जोड़ दिए हैं.

आज की तारीख में कोई एक चौथाई लोग उन्हें दीवानगी की हद तक पसंद करते हैं. ये लोग हर सूरत और हर हालत में मोदी जी और उनके फैसलों के साथ हैं, फिर चाहे वह कितना ही गलत और अतार्किक फैसला क्यों न हो. मोदी जी पर कोई प्रश्न चिन्ह तो लगा दीजिए ज़रा; ये आप पर बिना कोई लिहाज़ किए मधुमक्खी की तरह चिपक जाएंगे. कोई बड़ी बात नहीं कि दक्षिण की तर्ज़ पर जल्द ही मोदी जी के मंदिर भी दिखने लगें. गांधी जी और उनके बाद नेहरू जी को छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी नेता के पास इतने कट्टर समर्थक नहीं रहे, जिनके लिए समर्थक और प्रशंसक जैसे शब्द छोटे पड़ गए हों. हालाँकि बांग्लादेश की आज़ादी के दौरान कुछ समय के लिए इंदिरा जी ज़रूर अपवाद रही हैं.

लेकिन एक चीज़ जो मोदी जी को बाकी सभी से बिलकुल अलग कर देती है, वह है एक बड़े तबके में उनके प्रति असीम घृणा. पहले एक तिहाई दीवानों के एकदम उलट दूसरे एक-चौथाई लोग उनसे बेपनाह नफरत करते हैं. उनकी शक्ल तक नहीं देख सकते. ये मानने को तैयार ही नहीं हैं कि मोदी कुछ अच्छा कर या सोच भी सकते हैं. इसका बस चले तो ये मोदी टायर तक खरीदना बंद कर दें. मोदी जी के विरोध में ये लोग भाषा की मर्यादा तक भूल जाते हैं. आप मोदी जी की किसी भी बात का समर्थन भर कर दीजिये, ये आपको भक्त साबित करने में लग जाएंगे.

नरेन्द्र मोदी यह सब अच्छे से जानते हैं. लेकिन फिलहाल नफरत करने वालों के बारे में वह कतई गंभीर नहीं हैं. उनका पूरा ध्यान तो बस बचे हुए तीन चौथाई पर ही है. उनका चुनावी अंकगणित भी यही है. इन तीन चौथाई में मोदी जी नरम समाजवादियों, रघुपति राघव वाले गांधीवादियों, थके – हारे कम्युनिस्टों, हल्का- फुल्का विरोध करते हुए एन जी ओ वालों, मुसलमानों के कुछ छोटे तबकों वगैरह के लिए जगह तो बना सकते हैं, लेकिन पक्के विरोधियों की उन्हें कोई परवाह नहीं. वह तो उन्हें लगातार चिढाए और चढ़ाए रखना चाहते हैं. मोदी जी को शायद यह भी लगता है कि इसी विरोध ने उन्हें पहचान दिलाई है, और उनकी मौजूदा पहचान का बने रहना उनके लिए ज़रूरी हैं.

लगता तो यही है कि एक चौथाई कट्टर विरोधियों के दिल जीतने का मोदी जी का कोई इरादा नहीं है. मेरी और हमारी दिक्कत शायद यही – कहीं पर है.

(अब ये न पूछिएगा कि आप कहना क्या चाहते हैं. जो आप चाहते हैं, वह आप खुद ही लिखिए. फेसबुक पर तो शब्दों की सीमा भी नहीं. और हाँ........मोदी जी, राहुल जी, अखिलेश भैया और बहन जी, किसी से मेरा कोई ज़मीन का झगड़ा नहीं है)
LikeShow more reactions
Comment

कोई समझाए इन सबको.

कोई समझाए इन सबको.

विरोधियों के बयानों से विचलित हुए बगैर चुपचाप अपना काम करना, यह मोदी जी की पहचान है, उनकी ताक़त भी. उन्हें अब तक अपनी इसी पहचान पर वोट मिले हैं. लेकिन लालू जी की शैली अपना कर वह क्या हासिल करना चाहते हैं, समझ में नहीं आता. वैसे सदन की कार्यवाही टी वी पर दिखाई जाती है, और सदन में बोलकर भी चुनाव प्रचार किया जा सकता है, लेकिन लोकसभा और जनसभा की भाषा और शैली में फर्क तो रहना ही चाहिए. फिर प्रधानमंत्री पद की गरिमा का भी सवाल है. कोई समझाए इन्हें कि विपक्ष पर प्रहार अटल जी भी कम नहीं करते थे. और आडवाणी जी और जोशी जी अब भी सदन के भीतर ही हैं.

दूसरे हैं अपने राहुल जी. उन्हें न जाने किसने बता दिया कि दाढी बढाए, बाहें चढाए वह ज्यादा अच्छे लगते हैं. उनकी अपनी एक शैली है, और भाषण बाज़ी में वह दूसरे नेताओं का सामना नहीं कर सकते. कल मितरो...... कहकर मोदी जी की मिमिक्री करते हुए वह निहायत बचकाना लग रहे थे. ये नहीं जानते कि आक्रामक चुनाव प्रचार करने का मतलब चिल्ला कर कर गला बैठा लेना नहीं होता. राहुल जी भी दूसरों की नक़ल करते अच्छे नहीं दीखते. इस मामले में ज्योति सिंधिया भी उनके नक़्शे क़दम पर चल रहे हैं. वह भूल जाते हैं कि राजा- राजकुमारों को चिलाने की आदत भी नहीं होती, और प्रजा उन्हें गला फाड़ते देखना भी नहीं चाहती. कोई समझाए छोटे गांधी और छोटे सिंधिया को कि वे संसद में और बाहर सचिन पायलट और तरुण गोगोई जैसे युवा सांसदों को बोलते देखें और उनसे कुछ सीखें.

इस मामले में अखिलेश यादव बड़े संतुलित दिख रहे हैं. उनके पास ज्यादा कंटेंट नहीं होता, लेकिन उन्होंने अपनी एक शैली विकसित की है, जिसमें हास्य और कटाक्ष है; उनकी हाज़िरजवाबी इधर प्रभावित कर रही है. वह जान रहे हैं कि लोगों को कैसे लुभाना है. वह अच्छे वक्ता नहीं थे, लेकिन पिछले एकाध साल में उन्होंने मोदी जी की तरह लोगों से कनेक्ट करना और अटल जी की तरह मीठे तंज़ कसना सीखा है. जबरन समाजवादी पार्टी के मुखिया बने अखिलेश किसी एंगल से समाजवादी नहीं हैं, लेकिन अब उनके भाषणों में समाजवादी शैली दिखने लगी है. अपने पिता की तरह उत्त पदेस कहते वह बड़े स्वाभाविक लगते हैं. लेकिन इनकी भाषा में थोडा अहंकार दिखने लगा है. मुझसे कुछ छोटे हैं, इसलिए इन्हें मैं ही समझाए देता हूँ कि थोड़ी सी विनम्रता से वह और भी अच्छे लगने लगेंगे.

साबू का अवतार हैं राहुल भैया

शुभ- शुभ बोलिए राहुल भैया. अब तक तो यही पता था कि भूकम्प तब आता है, जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है. ईश्वर आपको सपरिवार सलामत रखे. " ईश्वर के लिए", ऎसी प्रणवात्मक बातें न कहा कीजिये.

साधो, डायमंड कॉमिक्स नामक उपनिषद श्रंखला में महर्षि प्राण ने बार- बार बताया है कि ' जब साबू को ग़ुस्सा आता है, तो ज्यूपिटर यानी बृहस्पति ग्रह पर पर कोई ज्वालामुखी फटता है'. अब पता चला कि महर्षि प्राण भविष्य देख सकते थे.

सच में राहुल भैया साबू का अवतार हैं.

साबू की हरकतों का कोई भरोसा नहीं, इसलिए हर समय एक चाचा चौधरी उनके साथ ज़रूर रहते हैं. ग्वालियर, शाहजहांपुर और राजस्थान वाले बिल्लू, पिंकी वगैरह ज़रुरत के मुताबिक़ हर कहानी में आ जाते हैं. उनके साथ राकेट नामक कुत्ता भी रहता है. ज़ाहिर है, दूसरों पर झपटने-भौंकने के लिए (साधो, नाम लेना अशोभनीय हो जाएगा. नो कमेंट्स. कृपया अपनी कल्पना का इस्तेमाल करें).

बस इस डायमंड कॉमिक्स में एक ही बदलाव है. यहाँ चाचा चौधरी लगातार बदलते रहते हैं. कुछ दिन पहले तक जनार्दन दूबे चाचा थे, जो हर फोटो में साथ रहते थे. आजकल गुलाम नबी चाचा हरदम साथ दीखते हैं.
वैसे, डायमंड कॉमिक्स का साबू भी अपना दिमाग नहीं लगाता, बस आस्तीनें चढ़ाकर भिड जाता है. दिमाग का ठेका चाचाओं का होता है, जिनका "दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज़ चलता है".

साधो, जब चाचा हैं, बिल्लू - पिंकी हैं, साबू हैं, समूची डायमंड कॉमिक्स है ; तो डायलाग भी तो वैसे ही होंगे. इस साबू को गुस्सा आयेगा तो ज्वालामुखी फटे न फटे, भूकंप तो आयेगा ही. पिछले दिनों इंडोनेशिया में आ भी चुका है. इधर कुछ झटके गुजरात में भी आये हैं. बीच में एक दिन दिल्ली में भी हल्का झटका लगा था. हे संकटहरण

बजरंगबली! हमारे साबू का ग़ुस्सा कम करो. या मौला मुश्किल कुशा!

हाँ, टी वी पर कोई बता रहा था कि साबू का ट्रक डगडग 4 करोड़ का है.

मुरादाबादी चिकन बिरयानी

'अबे लखनऊ के खानसामे मर गए हैं क्या, जो मुरादाबाद वाले हमें बिरयानी खिलाएंगे. हैदराबाद तक तो फिर भी गनीमत थी, ये मुरादाबाद वाले कब से बिरयानी खाने- पकाने लगे? अमां, बिरयानी सिर्फ खाने की चीज़ है? इसके साथ हज़ार तरह के अदाबो- आदाब, नफासतऔर सलीक़े जुड़े हैं. अब ये मुरादाबाद वालों का सलीके से क्या वास्ता?.........कहेंगे.......सलीका वलीका रैनदे ताऊ. देख क्या रिया ए. धोरे में खडा तो हो मती. प्लेट उठा के निकल्ले साइड कू. गाहक आन दे. नुक्सान हो रिया ए......... अब तो उठा ले मौला. आरिया जारिया करने वाले मुरादाबादी हम लखनउओं को बिरयानी खिलाएंगे? ज़हर न खा लें!

हसन अब्बास चचा बेहद नाराज़ हैं. असल में बड़ी - बड़ी पीतल की हांडियां चमकाते हुए मुरादाबाद वालोंने लखनऊ के खानसामों की ऎसी- तैसी कर दी है. लखनऊ के हर कोने में मुरादाबादी चिकन बिरयानी की दुकानें सज गई हैं. मानों पूरा मुरादाबाद लखनऊ आ बसा हो. देखा-देखी अभी परसों हसनगंज मोहल्ले का अल्लन भी मुरादाबादी बिरयानी का बोर्ड टांगने जा रहा था. अब्बास चच्चा ने जूता निकाल लिया. 'कमबख्त..नामुराद....अबे कम से कम पुराने शहर को तो बख्श दो'

लखनऊ के इतिहास के सबसे बड़े जानकार Yogesh Praveen साहब ही शायद ये बता पाएं कि तारीख़ में शहर- ए- लखनऊ, उसके खाने और खानसामों की ऎसी फजीहत पहले कब हुई थी.

बहुत हुआ महाराज. अपनी इज्ज़त अपने हाथ ! (शंकराचार्य स्वरूपानंद जी को दूसरी और संशोधित चिठ्ठी).


अभी शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का अद्भुत बयान आया है कि महाराष्ट्र के लोग साईं बाबा की पूजा करते हैं, इसलिए ईश्वर ने सूखे के रूप में उन्हें सज़ा दी है. डेढ़ साल पहले भी मैंने शंकराचार्य जी को एक खुला पत्र लिखा था. जब उन्होंने साईं बाबा के विरोध को अपना एजेंडा बनाना शुरू किया था. उसी पत्र को कुछ संशोधन और ज़्यादा नाराजगी के साथ फिर से लिख रहा हूँ.

आदरणीय स्वरूपानंद जी सरस्वती,

क्षमा कीजियेगा पूज्यपाद, लगातार बेकार की बातें कर रहे हैं आप, और ये टी वी वाले भी आपको न जाने क्यों तवज्जो दिए रहते हैं. अगर महाराष्ट्र का सूखा विधर्मी साईं की पूजा का परिणाम है, तो केरल के मंदिर की दुर्घटना, बद्री-केदारनाथ का रूह कंपा देने वाला हादसा, और हर तीसरे महीने मंदिरों में होने वाली भगदड़ में सैकड़ों लोगों की मौत के कारण क्या हैं महाराज. क्या आपके शंकराचार्य होने से ये हादसे हो रहे हैं? नहीं न? तो फिर?

आप लगातार साईं बाबा पर अनर्गल टिप्पणियाँ कर रहे हैं. ऐसी टिप्पणी करने का आपका कोई अधिकार तो नहीं था. फिर भी आप शंकराचार्य है, और बुजुर्ग भी. सो मर्यादा तो रखनी ही पड़ेगी. वर्ना और कोई होता तो लोग.......
आप तो शायद थोडा पढ़े-लिखे भी है महाराज. आदि शंकर द्वारा स्थापित चार(पांच?) पीठों में से दो- दो पीठों के एक साथ शंकराचार्य. मीडिया, राजनीति और समसामयिक परिदृश्य पर भी आप की अच्छी नज़र रहती है. क्या आप नहीं जानते कि साईं बाबा की पूजा पूरे हिन्दू रीति- रिवाज़ के साथ होती है. संस्कृत के श्लोकों और मराठी के भजनों के साथ उनकी भगवान् दत्तात्रय के अवतार के रूप में पूजा की जाती है. जय देव जय देव दत्ता अवधूता......... इसलिए साईं की पूजा हिंदुत्व के खिलाफ कोई साजिश नहीं है. और हो भी, तो बेफिक्र रहिये, हिंदुत्व गज़नवी, गोरी, खिलजी और औरंगजेब के दौर में भी काफी हद तक बचा रह गया, और आज भी खतरे में नहीं है. वैसे ही जैसे कि इस्लाम न तो संजय गाँधी के समय में खतरे में था, न ही नरेन्द्र मोदी के समय में है.

बीच में आपने चिता जताई कि राष्ट्रपति तक शिर्डी जाते हैं दर्शन करने. शायद आप भूल गए महाराज कि एक ज़माना था कि प्रधानमंत्री और गवर्नर तक आपके दर्शनों को आते थे, और आपके पैर भी छूते थे. कई दशकों तक कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों से ज्यादा आपका रूतबा रहा है कांग्रेस के भीतर. जब आप जैसे राजनैतिक और मुकदमेबाज़ धर्मगुरु के इतने भक्त थे महाराज, तो फिर साईं जैसे फ़कीर देवपुरुष के तो होंगे ही.

ये ज़रूर है कि डेढ़- दो दशक पहले जैसे वैष्णो देवी जाने का फैशन था, वैसे ही आजकल शिर्डी का ट्रेंड है. इस तरह के ट्रेंड्स से मुझे भी नफरत है. ये भी सच है कि साईं बाबा के नाम का दुरूपयोग हो रहा है. गुलशन कुमार के माता के जगरातों के बाद अब साईं बाबा के भी कानफोडू जागरण होने लगे हैं. मेरे घर के पास एक दूकान पर रखी साईं बाबा की मूर्ति चार- पांच साल में ही एक भव्य मंदिर में तब्दील हो गयी, और अब हर बृहस्पतिवार की शाम वहाँ पर एक तरफ की सड़क लगभग जाम हो जाती है. शिर्डी की प्रबंधन समिति तिरुपति वालों की ही तरह बस पैसे पर नज़र रखती है. ये सब तो ठीक होना ही चाहिए. शिर्डी में भी, तिरुपति में भी, आपकी अपनी पीठ द्वारका और बद्रीनाथ में भी.

लेकिन साईं के बारे में ऐसा बयान देने से पहले उनके बारे में कुछ जान और पढ़ लेना चाहिए था आपको. उनके चमत्कारों के बारे में नहीं, बल्कि उनके जीवन और उनके संदेशों के बारे में.

चलिए मान लेते हैं कि जानकारी का अभाव तो शंकराचार्य को भी हो सकता है. आखिर शंकराचार्य होने से कोई सर्वज्ञ थोड़े ही हो जाता है. हो सकता है कि आपने ये बयान किसी अच्छी नीयत से दिया हो. लेकिन आज आपको क्या सूझी ऐसा बयान देने की. आप अब से पहले कब धर्म की रक्षा के लिए सामने आये थे महाराज? आप को हिंदुत्व की चिंताएं कब से होने लगीं.

आप तो वैचारिक और व्यावहारिक रूप से कांग्रेस के बेहद निकट थे. सो आपसे ये अपेक्षा तो नहीं थी कि आप हिन्दू धर्म के सबसे बड़े रक्षक सिखों के खिलाफ हुए 84 के दंगों के खिलाफ बोलते (जैसे आप गैर कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के खिलाफ बोलते आये हैं), या फिर आपातकाल पर आपकी जुबां खुलती. लेकिन पूज्यपाद, आप तो एक साथ दो- दो पीठ के शंकराचार्य थे. धर्म के भीतर की विसंगतियों पर तो बोल ही सकते थे आप.

आप बोल सकते थे उनके खिलाफ, जो पैसे लेकर महा मंडलेश्वर की पदवी नीलाम करते हैं, इनमें से कई तो महंत तक हैं बड़ी- बड़ी गद्दियों और अखाड़ों के. उनके खिलाफ क्यों नहीं बोले आप? बात अगर प्रमोद कृष्णन टाइप स्वयंभू, बाल्टी बाबा जैसे जगलर, चंद्रास्वामी जैसे दलाल या निर्मल बाबा जैसे ठगों की ही होती तो कोई बात नहीं थी, आपकी आँखों के सामने तो बाकायदा अखाड़ों के मठाधीश और महंत भी कई- कई करोड़ की गाड़ियों में घूमते हैं, दारू और ड्रग्स पीते हैं, महिला भक्तों को भावनात्मक रूप से फंसाकर उनका शोषण ही नहीं, बलात्कार तक करते हैं.

खुद आप जिस ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य हैं, वहाँ का मुख्य पुजारी भी दो साल पहले एक महिला से बलात्कार की कोशिश करते पकड़ा गया था. इसके खिलाफ तो कभी नहीं बोले आप? तीर्थ स्थानों पर जिस प्रकार से पण्डे और पुजारी संगठित रूप से गुंडागर्दी करते हैं, मंदिरों में दर्शन की फीस लगती हैं, वी आई पी को पीछे के रास्ते से चुपचाप दर्शन करा दिए जाते हैं. उस पर बोले कभी आप? धार्मिक स्थान हनीमून के अड्डे बन गए है, मंदिरों का व्यावसायीकरण किया जा रही है, मल्टीनेशनल कंपनियां धार्मिक आयोजनों को विज्ञापन का ज़रिया बना रही हैं. इन सब पर आपकी नज़र क्यों नहीं पड़ती महाराज.

आप तो न जाने कब से शंकराचार्य हैं. उम्र काफी हो जाने के बावजूद आपको याद होगा कि कैसे सत्तर के दशक में कैसे संतोषी माता नाम की एक फिल्मी देवी अचानक देश के देवताओं की टॉप लिस्ट में आ गयी थी (जैसे आजकल साईं बाबा, तिरुपति और राजस्थान के दोनों बालाजीज़, और खाटू श्याम जी टॉप ट्रेंड कर रहे हैं. जम्मू वाली वैष्णवी देवी तो रैंकिंग में काफी पीछे हो गई हैं) और हिन्दी भारत के गाँव-गाँव और शहर- शहर में संतोषी माता के मंदिर बन गए थे. संतोषी माता के नाम से देश की आधी महिलायें शुक्रवार के व्रत रखने लगी थी. आजकल फिर से ऐसी ही एक काल्पनिक वैभव लक्ष्मी नामक देवी का व्रत फैशन में आ गया है. इन फ़िल्मी अशास्त्रीय देवियों की पूजा के खिलाफ तो आपका कोई बयान नहीं आया स्वामी जी.

आप तो दुनियादारी से बहुत जुड़े रहे हैं. क्या आप नहीं जानते अयोध्या और हरद्वार के तमाम मठ और गढ़ियाँ बिहार से भागे हुए खूंखार अपराधियों से भरी हुई हैं. क्या आप नहीं जानते कि ज़मीनों और संपत्तियों को लेकर मठों- मंदिरों के भीतर क्या- क्या खेल होते हैं.

और सब छोडिये महाराज. आज तक देश के हज़ारों मंदिरों में तथाकथित शूद्रों का प्रवेश वर्जित है. आज भी मंदिरों के महंत, पुजारी और पण्डे हिन्दुओं के ही स्पर्श से अपवित्र हो जा रहे हैं. इसके लिए कुछ बोलिए. आज भी देवदासी जैसी घृणित प्रथा जीवित है मंदिरों में. उसके खिलाफ बोलिए ना ! आप जैसे धर्माचार्य क्या गैर ब्राह्मणों और स्त्रियों के पुरोहित बनने का रास्ता नहीं खोल सकते? क्या आप आश्रमों में निठल्ले बैठे लाखों साधुओं से ये अपील नहीं कर सकते कि वे विवेकानंद की तरह बाहर निकलें और समाज के बीच जाकर काम करें? एक बार कोशिश तो कीजिये. लेकिन आप को क्या? आप तो एयर कंडीशंड आश्रम में बैठकर बैठकर उन पांवों को पुजाते रहिये, जिनपर इंदिरा जी से लेकर न जाने कौन- कौन तक गिर चुके हैं.

माफ़ कीजियेगा, आपको चैलेंज कर रहा हूँ. मगर स्वामी जी, यही हमारा बड़प्पन है. मुझे 1990 में (जब आपके राजनैतिक विरोधियों ने गर्व से खुद को हिन्दू कहने का नारा लगाया था) भी खुद के हिन्दू होने पर गर्व था, और आज भी है. जातिप्रथा के कलंक के अलावा मुझे पूरी तरह से अपने हिन्दू होने पर गर्व है. मुझे यह गर्व इसलिए भी है क्योंकि एक हिन्दू होने के नाते मैं अपने शीर्ष धर्मगुरु को भी चैलेन्ज कर सकता हूँ, धर्मशास्त्रों को भी, धर्म को भी और यहाँ तक कि ईश्वर, उसकी सत्ता और उसके अस्तित्व को भी. मैं ही नहीं कोई भी हिन्दू कर सकता है. और ऐसा करने वाले के खिलाफ न तो हम फतवा जारी करते है, न ही ब्लासफेमी क़ानून बनाकर सरेआम लोगों को संगसार करते हैं. कुछ सिरफिरे और बेवक़ूफ़ फतवेनुमा बयान जारी भी करते हैं, तो हम उन्हें हवा में उड़ा देते हैं, जैसे आपके ऊलजुलूल बयानों को उडाये दे रहे हैं.

हम विष्णु की पूजा करें तो भी हिन्दू होते हैं, शिव/ रूद्र की पूजा करें तो भी, और शक्ति की पूजा करें तो भी. हम प्रकृति पूजक हों, तो भी हिन्दू होते हैं, और लिंगपूजक हों तो भी. हम भजन गायें तो भी हिन्दू, मौन साधना करें तो भी हिन्दू, श्मशान साधना करें तो भी हिन्दू. हमारा एक ही देवता संहार का देवता रूद्र भी है, और कल्याण का देवता शिव भी. हम अयोध्या के क्षत्रिय राजा राम को भी ईश्वर का अवतार मानते है, गोकुल के ग्वाले कृष्ण को भी और वनवासी हनुमान को भी.

और ये सब चलता ही रहेगा. हम महावीर को भी पूजेंगे, और नानक को भी. हमने तो सनातनियों के सबसे बड़े वैचारिक शत्रु बुद्ध को भी भगवान कहा. कहा ही नहीं, माना भी.

आप करते रहिये विरोध. हम तो पूजेंगे बराबरी, सादगी, समभाव और प्रेम के प्रतीक साईं को. हम ऐसे हर फ़कीर को पूजेंगे. हम पूजेंगे श्री रामकृष्ण को, स्वामी विवेकानंद को, श्री अरविन्द को, श्रीमाँ को. हम आपके मठों के कर्मकांडी पाखंड, अंधविश्वासों, और अनाचारों के खिलाफ समय - समय पर खड़े हुए हर नानक, कबीर और दयानंद को पूजेंगे. हम अगर सत्य के पक्ष में खड़े कृष्ण को पूजेंगे तो अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए हुसैन को भी पूजेंगे. और ये सब करने के बाद भी हम सोलह आना हिन्दू रहेंगे. बल्कि अगर हमने ऐसा नहीं किया तो शायद हम हिन्दू न रह जाएँ.

झारखण्ड में वहाँ के क्रांतिकारी नायक बिरसा मुंडा को भगवान कहा जाता है. क्योंकि लोकनायक बिरसा ने अंग्रेजों के अत्याचारी शासन के खिलाफ संघर्ष किया, और अंग्रेजों की जेल में अपने प्राण त्याग दिए. हम तो करते रहेंगे पूजा बिरसा भगवान की. बाबासाहेब आंबेडकर के तमाम अनुयायी उनकी पूजा करते हैं. शायद जो ब्रज और द्वारका के लोगों ने कृष्ण में देखा, वही इन लोगों ने आंबेडकर में देखा हो. क्या आप रोक लेंगे इन्हें ऐसा करने से. उन्हें अहिंदू घोषित कर देंगे?

कुछ न बोलिए आप. न्यूज़ में बने रहने के लिए कुछ अच्छा भी तो किया जा सकता है. कभी आप महिलाओं के मंदिर प्रवेश को लेकर कुछ बोलते हैं, कभी पत्रकार को थप्पड़ मारकर न्यूज़ बनाते हैं. वैसे बधाई हो. अब दो दिन तक आप न्यूज़ में रहेंगे.

अपनी अकर्मण्यता, पोंगापंथी विचारों और ऊलजुलूल बयानों से आप लगातार शंकराचार्य की महान परम्परा पर कीचड डाल रहे हैं. जो लोग अब भी शंकराचार्य नाम की संस्था पर थोडा विश्वास रखते हैं, काहे उनका भरोसा खत्म किये दे रहे हैं? ये बेचारे तो ये नहीं जानते कि बीते बीस-तीस सालों से आप शंकराचार्य पद पर कब्ज़े को लेकर मुकदमा लड़ रहे हैं, और कोर्ट का सहारा लेकर एक के बजाए दो पीठों के शंकराचार्य बने हुए हैं. काहे नहीं सन्यासी का धर्म निभाते हुए स्वयं अवकाश लेकर दो नई सोच वाले ऊर्जावान व्यक्तियों को अवसर देते? (वैसे आपके उत्तराधिकारी और ‘शंकराचार्य इन वेटिंग’ अविमुक्तेश्वरानंद जी को भी यही आपकी मीडिया वाली लत लगी हुई है).

याद रखियेगा, आप दो मंदिरों, उनकी थोड़ी सी ज़मीन और कुछ चेलों के शंकराचार्य है, एक अरब से ज्यादा हिन्दुओं के पोप नहीं. और अब तो प्रासंगिक बने रहने के लिए पुराणपंथी माने जाने वाले कैथोलिक चर्च के पोप तक वेटिकन में बड़े बदलावों की बात कर रहे हैं.

सो बहुत हुआ. अपनी इज्ज़त अपने हाथ. लोग कब तक पद और उम्र का लिहाज़ करेंगे.

मित्रो, ये पत्र शंकराचार्य जी के नाम है. वे तो शायद फेसबुक पर होंगे नहीं, मगर शंकराचार्य के बहाने उन जैसे तमाम धर्मगुरुओं तक ये बातें पहुँच सकें तो अच्छा ही होगा.

नोट बदली पर प्रधानमंत्री को ख़त

दोस्तों, नोट वापसी पर देश के प्रधानमंत्री को पत्र लिख रहा था. ज़रा देखिये तो, ठीक लिखा है? कुछ जोड़ना- घटाना तो नहीं है?

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

अर्थशास्त्र की मेरी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समझ बहुत कच्ची है, लेकिन राजनीतिशास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ, और इसीलिए नोटवापसी के मामले में थोडा हैरान हूँ.

मुद्दा दरअसल यह है कि आधुनिक पूंजीवाद के समर्थक एक धुर दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री ने एक ऐसा निर्णय लिया है, जो मूलतः एक समाजवादी प्रकृति का निर्णय है. यह निर्णय पूँजी के प्रवाह और नियमन (रेग्युलेशन) पर राज्य के दखल को और भी बढाता है. इससे तो साम्यवादी / समाजवादी लोगों को खुश होना चाहिए था. लेकिन कमाल है. कम्युनिस्टों के सबसे बड़े नेता येचुरी साहब इसका विरोध कर रहे हैं और समाजवाद के लेटेस्ट अलमबरदार अखिलेश यादव कह रहे हैं कि अर्थ व्यवस्था में थोडा काला धन भी रहना चाहिए. उनका मानना है कि मंदी के दिनों में काला धन तिजोरियों से बाहर निकलकर अर्थ व्यवस्था को संबल देता है.

शुरुआती समर्थन के बाद कांग्रेस भी अब विरोध में उतर आई है. फिर केजरीवाल तो केजरीवाल ही हैं. वैसे हमारे आसपास श्री नीतीश कुमार और प्रो. योगेन्द्र यादव जैसे आपके राजनैतिक विरोधी भी हैं, जो अलोकप्रियता का जोखिम लेकर भी मोटे तौर पर नोट वापसी का समर्थन ही कर रहे हैं.

बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं कि यह एक बेहद साहसिक कदम है. हर छः महीने में कहीं न कहीं चुनाव वाले हमारे लोकतंत्र में इतना बड़ा जोखिम या तो कोई बड़े जिगरे वाला ले सकता है, या कोई अव्वल दर्जे का ज़ुआरी या कोई महा -विक्षिप्त व्यक्ति. प्रश्न मेरा है, उत्तर आपको नहीं बल्कि समय को देना है.

यह ठीक है कि मुद्दे की गोपनीयता के मद्देनज़र पहले से ज्यादा तैयारियां नहीं की जा सकती थीं, वरना आपकी पार्टी के रेड्डी बन्धु, बसपा की मायावती जी, सपा के शिवपाल सिंह जी, कोंग्रेस के पवन बंसल साहब, दक्षिण की कनिमोड़ी और जय ललिता जी, पंजाब के बादल- मजीठिया, झारखंड के कौड़ा- सोरेन वगैरह साहिबान अपना पूरा माल ठिकाने लगा चुके होते. लेकिन गोपनीयता बनाए रखने के चक्कर में शायद आपकी टीम ने दूरअंदेशी को भी एक तरफ रख दिया. शायद इस निर्णय में आपकी मदद कुछेक ऐसे लोग (राजनेता और सीनियर अफसरान) कर रहे थे, जो ज़मीन से बहुत ऊपर रहते हैं, इसलिए वे आम लोगों को आने वाली दुश्वारियों का ठीक से अनुमान नहीं लगा सके. उंगली में स्याही, शादी के लिए ढाई लाख की अनुमति जैसे कदम बहुत देर से लिए गए. थोडा संवेदनशील होकर इस पीड़ा को काफी कम किया जा सकता था. और कम से कम आपकी पार्टी के लोग ऊटपटांग बयान देने से तो बच ही सकते थे.

वैसे एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि इस पूरे अभियान की लागत सरकार पर कितनी पड़ रही है. जिस तरह हवाई जहाज़ों और हेलीकॉप्टरों से नोट ढोए जा रहे हैं. बैंकों का परिचालन खर्च बढ़ रहा है और तमाम ज़रूरी कामकाज रुके हुए हैं. उद्योग और व्यापार में चक्काजाम सा हो गया है. जनता को होने वाले खर्चे और कष्टों की मानवीय कीमत तो न ही निकालें, बेहतर है. और हाँ, इधर आपके फैसले के लीक हो जाने की खबरें भी आ रही हैं (इसकी एक छोटी सी जांच भी करा लीजिये न!) लेकिन इन सब बातों के बावजूद लोग इस बड़े काम में आपकी मदद करना चाहते हैं. कमाल है कि बेइंतिहा परेशानी के बावजूद लम्बी लाइनों में खड़े ज़्यादातर लोग आपको गालियाँ नहीं दे रहे हैं. याद रखियेगा, ये सभी आपकी पार्टी के वोटर नहीं हैं.

बुरा न मानिएगा प्रधानमंत्री जी, लेकिन मुझे लगता है कि नोट वापसी के सीधे प्रभाव के रूप में कालेधन पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन इससे काला धन रखने वालों में घबराहट बहुत बढ़ेगी. नतीजतन सरकार को टैक्स देने के मामले में लोग थोडा ज्यादा ईमानदार होंगे. कुछ और ज्यादा लेनदेन कागजों पर यानी एक नंबर में होने लगेगा. नकली मुद्रा पर तो तात्कालिक असर होगा ही ( हालांकि अपना छोटा भाई पाकिस्तान सही- सलामत रहे, तो नकली नोटों की किल्लत जल्द ही दूर भी हो जायेगी. जीवे – जीवे पाकिस्तान.)

लेकिन यह सब तभी हो पायेगा, जब इसके साथ कुछ और ज़रूरी क़दम उठाये जाएं. अब ज़रुरत इस बात की है कि आप और आपकी सरकार असली बड़े खिलाड़ियों पर हाथ डालना शुरू करे. बहुतों को लगता है कि यह काम आपके लिए भी बूते और हिम्मत के बाहर है. इधर आपने और आपकी पार्टी के नेताओं ने आपकी नीयत साफ़ होने की बात कही है. अगर ऐसा है तो अब यह ज़रूरी है कि बैंकों के बड़े बकायेदारों के नाम ज़ाहिर किये जाएं; रीयल स्टेट और कंस्ट्रक्शन कंपनियों, आयात- निर्यात फर्मों रक्षा सौदागरों, दलाल फर्मों, बड़े सुनारों, उद्योग के नाम पर बड़े ज़मीन सौदों सभी की जांच की जाए. सभी राजनैतिक दल आर टी आई के दायरे में आएं. पहल खुद आपकी पार्टी भाजपा करे.

ये ज़ाहिर है कि आप भारत के नेहरु ही नहीं सिंगापुर के ली कुआन यू बनना चाहते हैं. तो बनिए न! मना किसने किया है. मौक़ा अच्छा है. अभी ढाई साल तो कोई आपको सत्ता से हिलाने वाला है नहीं. आप देश के प्रधानमंत्री के साथ ही भाजपा के नेता भी हैं. अपनी पार्टी और परिवार की बैठक बुलाइए और कालाधन जमा करने वालों के साथ नफरत की राजनीति करने वालों पर भी सर्जिकल स्ट्राइक कीजिए. पार्टी के भीतर विरोध की परवाह न कीजिए. इस मामले में सभी 130 करोड़ लोग आपके साथ हैं. इन 130 करोड़ के लिए मुकेशभाई और गौतमभाई वगैरह कुछ लोगों के एहसानफरामोश भी बन जाएंगे तो अच्छा ही होगा. किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं के हिसाब से नीतियाँ बनाइए. जनता शायद पीछे का सब भूलने और माफ़ करने के लिए तैयार है. इस बहाने आपकी छवि भी बेहतर बनेगी. सब छोटे-बड़े दाग़ भी धुल जायेंगे. थोड़ी हिम्मत दिखाइए. लोगों ने बेहिसाब दुश्वारियों और दर्द के बावजूद लम्बी लाइनों में धैर्य के साथ खड़े रहकर बहुत कुछ संकेत दे दिया है.

आशा है कि आप इस दर्द की कीमत चुकाएंगे.

एक अदना नागरिक,