(वैसे इसका सस्ता और चलताऊ शीर्षक ' मंच पर कलमा- सरिता बनी सलमा' भी हो सकता था)
एक हैं डॉ. जाकिर नाइक साहब. मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों का एक बड़ा तबका उनसे बहुत प्रभावित रहता है. अक्सर उन्हें सुनना अच्छा लगता है. इनके पास तर्क है, अध्ययन है, विद्वत्ता है. पीस टी वी नाम का एक मजहबी चैनल चलाते हैं. इस्लाम के अलावा दूसरे मजहबों की भी अच्छी जानकारी रखते हैं. कॉम्परेटिव थियोल्जी यानी तुलनात्मक धर्मशास्त्र पर अच्छी पकड़ है. भारत समेत दुनिया के कई देशों में इनके चाहने वाले बड़ी तादाद में हैं. अंग्रेज़ी भी बढ़िया बोल लेते हैं. भारत में इनकी सभाओं की तादाद पाँच अंकों तक पहुँच जाती है. वैसे दावा छः अंकों का भी है. वैसे ये एक अलग बात है कि एक ख़ास फिरके से मतभेद के चलते हिन्दुस्तान के आधे से ज़्यादा मुसलमान उनकी शक्ल तक नहीं देख सकते.
बाबा रामदेव की तरह इनका कामकाज भी शायद टी वी से ही परवान चढ़ा. फिर इनके एंग्लो – अरेबिक टाइप हाई प्रोफाइल मदरसे भी शुरू हुए. अब जबकि पीस टी वी कई भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित करने लगा है, और डॉ. नाइक का प्रभाव तेज़ी से बढ़ चला है, तो इन्होने घूम- घूम कर बड़ी तादाद वाले कार्यक्रम करना शुरू कर दिया है.
बाबा रामदेव की तरह इनका कामकाज भी शायद टी वी से ही परवान चढ़ा. फिर इनके एंग्लो – अरेबिक टाइप हाई प्रोफाइल मदरसे भी शुरू हुए. अब जबकि पीस टी वी कई भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित करने लगा है, और डॉ. नाइक का प्रभाव तेज़ी से बढ़ चला है, तो इन्होने घूम- घूम कर बड़ी तादाद वाले कार्यक्रम करना शुरू कर दिया है.
शुरू में तो मामला मजहबी विचार विमर्श तक ही सीमित था, लेकिन पिछले कुछ समय से डॉ. जाकिर नाइक ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में गैर मुसलमानों को मुसलमान बनाना शुरू कर दिया है. कार्यक्रम के अंत में जाकिर नाइक या दूसरा कोई व्यक्ति अपील करता है कि जो गैर मुसलमान इस्लाम को स्वीकार करना चाहते हैं, वे सामने आएँ. इसके बाद पहले से तैयार कुछ लोग अपना हिन्दू नाम और पता बताते हैं. इसके बाद जाकिर साहब उनसे दो- तीन बार पूछते हैं कि उन पर किसी तरह का दबाव तो नहीं है, और आश्वस्त होकर जाकिर साहब उन्हें कलमा पढ़ा देते हैं. अभी अप्रैल के महीने में मुंबई में हुए एक कार्यक्रम में बीस से अधिक हिन्दू कन्वर्ट होकर मुसलमान बने हैं, और डॉ. जाकिर वाले फिरके में शामिल हुए हैं.
इस कार्यक्रम के वीडिओ में जाकिर साहब भारत के संविधान की तारीफ करते हुए दिख रहे हैं, जो हर व्यक्ति को अपना मज़हब चुनने, मानने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है. ये भी अच्छी बात है कि जाकिर नाइक हिन्दुओं वगैरह के इस्लाम क़ुबूल करने से पहले मुतमईन हो लेना चाहते हैं कि कहीं वे ऐसा किसी दबाव में तो नहीं कर रहे है. लेकिन क्या इस मज़हब परिवर्तन का सार्वजनिक प्रदर्शन होना चाहिए? वीडियो में कुछ बाप अपने नाबालिग बच्चों को भी इस्लाम की दीक्षा दिलाते हुए दिख रहे हैं. क्या यह नैतिक और कानूनी तौर पर ठीक है?
फिलहाल हम जिस तरह के माहौल में जी रहे हैं, उसे देखते हुए मैं आम तौर पर इस तरह के विषयों पर बात करना -खासकर फेसबुक जैसे माध्यमों पर -बिल्कुल ठीक नहीं समझता. लेकिन ये कोई आम मसला नहीं हैं. गहरी चिंता की बात है. पहले तो मैंने इस कार्यक्रम का एक वीडियो फेसबुक पर लगाया, फिर कुछ सोचकर थोड़ी ही देर में डिलीट भी कर दिया. जिसका मन करे यू-ट्यूब पर जाकर थोडा मेहनत कर ले.
दरअसल जाकिर साहब जिस तरह लगातार खुले मैदानों में आयोजित इन सार्वजनिक कार्यक्रमों में हज़ारों की भीड़ के बीच लोगों का मज़हब बदलवा रहे हैं; जिस तरह वह इन लोगों से कहलवाते हैं कि बुतपरस्ती गलत है वगैरह-वगैरह, उसके चलते पहले से ही चौपट माहौल की पूरी तरह ऎसी- तैसी हो सकती है. जिस तरह हम बारूद के गोदामों के बीच बसर कर रहे हैं, मुझे डर है कि जाकिर साहब के ये कार्यक्रम कहीं चिंगारी का काम न कर जाएं.
इन कार्यक्रमों को गंभीरता से लेते हुए मैं सभी मित्रों के विचार आमंत्रित करता हूँ. वैसे तो मेरे सभी मित्र बड़े संजीदा और समझदार हैं, लेकिन फिर भी एक निवेदन करना चाहता हूँ कि बहस भाषा की मर्यादा के साथ किसी को भी आहत किये बगैर चलनी चाहिए. लेकिन बहस ज़रूरी है. ये चर्चाएँ सतह के ऊपर आनी चाहिए. नहीं तो हमारे भीतर के तमाम फोड़े अन्दर ही अन्दर पकते रहेंगे, और हम भाई- भाई का मरहम बाहर से ही लगाते रहेंगे.
आइये, कुछ सार्थक बात शिष्टता के साथ करते हैं. उम्मीद है, हम सही दिशा की ओर ही बढ़ेंगे.
आमीन.