मेरे एक मित्र हैं. इन्होने
फेसबुक पर एक चित्र लगाया, जिसमें
लिखा था. आपको क्या होने पर गर्व है? चार विकल्प थे- नंबर एक- भारतीय, नंबर दो- हिन्दू,
नंबर तीन- मुस्लिम और नंबर चार –मनुष्य. शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि ज़्यादातर लोग इसका उत्तर
भारतीय या मनुष्य ही देंगे. लेकिन तीन दिन के भीतर इस पोस्ट के जवाब में जो
प्रतिक्रियाएं आयीं, उन्हें
देखकर मेरा माथ भन्ना गया. शर्तिया आप का भी भन्ना जाएगा.
इससे
पहले कि आगे बढ़ें, आपको
बताते चलें कि मेरे ये मित्र एक ऐसे शहर से ताल्लुक रखते हैं, जहां पचास फीसदी से ज्यादा
आबादी मुस्लिम है. साथ ही चूंकि ये खुद भी मुस्लिम हैं, इसलिए ज़ाहिर तौर पर इस
पोस्ट पर ज़्यादातर मुस्लिम युवकों के कमेंट्स ही आये.
देखकर
अच्छा नहीं लगा कि एक सोलंकी और एक मलिक साहब ने अपनी प्रतिक्रया में हिन्दू लिखा
था. सोलंकी साहब तो खुद को रियल हिन्दू बता रहे थे. ऐसे ही कृष्णा साहब ने ये तो
नहीं बताया कि वह खुद को सबसे पहले क्या मानते हैं, लेकिन उन्होंने ये ज़रूर ने कहा कि ‘सच्चा हिन्दू किसी के धर्म
की आलोचना नहीं कर सकता. हमारा हिन्दू धर्म हमें सभी धर्मों का सम्मान करने का
उपदेश देता है’. इसका
वक्तव्य का समापन उन्होंने हिन्दू धर्म की जय का नारा लगाते हुए दिया.
वैसे
तसल्ली की बात ये थी कि कोचले साहब और कुमार साहब ने खुद को पहले मनुष्य माना. एक
भाग्यवार साहब दार्शनिक टाइप इंसान थे. उन्होंने ४ बार ४ लिखा, जिसका मतलब है- मनुष्य.
इसके आगे वह लिखते हैं कि ‘ये शरीर
मिटटी का बना है, और
मिट्टी में ही मिल जाता है. मुझे गर्व किस बात का? इस लिए हमारी ओर से सब को गुड मॉर्निंग.’
एक शर्मा
जी ने लिखा १-२ . इसका मतलब होता है- पहले भारतीय, फिर हिन्दू. दो पटेलों में से एक सबसे पहले भारतीय
थे, जबकि
दुसरे सबसे पहले मनुष्य. मैथिल,
महाजन, इंगले, बरुरे, जायसवाल, कुशवाहा और महाजन सरनेम
वाले लोग भी पहले भारतीय ही थे.
सुलेमान
सरनेम वाली एक महिला का कहना था कि ‘सबसे पहले हमें एक अच्छा इंसान होने पर फख्र करना चाहिए, बाकी बातें बाद में’. पढ़कर अच्छा लगा. इसी तरह
नशीम और राइन सरनेम वाले दो पुरुषों और एजाज़ सरनेम वाली एक महिला ने सबसे पहले खुद
को भारतीय माना. एक सादिक साहब ने पूरी वरीयता सूची ही लिख दी थी. वह पहले पहले
भारतीय थे. फिर इंसान, और तब
मुसलमान.
दो लोगों
के नाम और सरनेम से मज़हब साफ़ नहीं हो रहा था.अब ये छोटू, राजू, गुड्डू, बबलू (और हमारे लखनऊ/अवध के
मोलहे) तो मज़हब से ऊपर उठे हुए नाम हैं न. अच्छी बात थी कि ये दोनों ही खुद को
पहले भारतीय मान रहे थे.
अब सुनिए
दुखी करने वाली बात.
भारत में
आकर इस्लाम भी जाति के कुप्रभाव से बचा नहीं रहा इसलिए पोस्ट पर कमेन्ट करने वाले
मुस्लिमों में से कुल ११ लोगों के सरनेम खान थे. इनमें दो महिलायें भी शामिल थीं. 9 पुरुष खानों में से 7 तो साफ़ तौर पर पहले मुस्लिम
थे. इनमें से एक ने तो मानो इस पोस्ट को चुनौती के तौर पर ले लिया था. उनका कहना
था- ‘एक नहीं
हज़ार बार कहूंगा, मुसलमान’. इनमें से एक खान साहब ने
पहले मुस्लिम लिखा , फिर
सुधारते हुए थोडा डिप्लोमेटिक उत्तर दिया- ईमान वाला. एक महिला खान (खानम?) ने लिखा – ‘मुसलमान. यही तो हमारी
पहचान है. वरना क्या फर्क है गैरों में और हम में’.
वैसे
राहत देने वाली खबर मिली खान साहब नंबर १० और ११ से. १० नंबर का कहना था कि ‘एक मुस्लिम ही अच्छा भारतीय
हो सकता है. इसलिए मुझे एक इंडियन मुस्लिम होने पर गर्व है’. खान नंबर ११ ने लिखा कि ; ‘हमें मुसलमान होने पर फख्र
है, इस लिए
हम हिन्दुस्तानी भी हैं’.
इसी तरह
दोनों शेख साहेबान पहले मुस्लिम ही थे. अहमद, अलीम, कासमी, अली, अहमद, रज़ा, मलिक भी सबसे पहले मुस्लिम
ही थे.
नक्काश
सरनेम वाले सज्जन ने ये पोस्ट डालने वाले हमारे मित्र पर तंज़ कसते हुए जताया कि इस
पोस्ट को डालने की ज़रुरत नहीं थी. मुझे भी लगा कि वह सही कह रहे है. लेकिन फिर लगा
ठीक ही है. इस बहाने चर्चा तो होगी कि क्यों इन 16 में से 3 हिन्दू और 25 में से 16- 17 मुसलमान
( प्रतिशत पे न जाइए, बात को
समझिये) पहले इंसान या भारतीय क्यों नहीं हो पाए? कमरे में चूहा मर जाए तो रूम फ्रेशनर से बदबू कम
नहीं होगी. चूहे को हटाना पडेगा. और इसके लिए ये पता होना ज़रूरी है कि चूहा है किस
कोने में. सिर्फ भाई- भाई के नारे लगाने से मामला सुलझेगा नहीं. पता लगाना पडेगा
कि लोग भाई- भाई क्यों नहीं हैं. इसके लिए चर्चा करना और कारणों को समझना ज़रूरी
है.
अपना
विश्लेषण फिर कभी लिखूंगा. फिलहाल आप अपनी राय दीजिये. लेकिन भाषा की मर्यादा को
समझते हुए.